छाया : होमेंद्र देशमुख
होमेंद्र देशमुख
इस सवाल ने मुझे और विस्तार में ले जाने को प्रेरित किया । क्यों एक स्त्री सवाल करती है और ‘पुरुष’ से माकूल जवाब की आशा रखती है और अंत मे वह निरुत्तर ही रह जाती है ।
हे ‘स्त्री’ ..! तुम ‘सवाल’ नही ,स्वयं ‘जवाब’ भी हो । ऐसा जवाब जिसे समझने या सुलझाने के लिए किसी और मौखिक, लिखित,प्रमाणित जवाब की जरूरत नही..
इसीलिए तो तुम “स्वयंसिद्धा” हो..!
पर क्यूं तुम्हे पुरुष का सर्टिफिकेट चाहिए ..
नही..! पुरुषों के बीच भी और अकेले भी तुम रोज प्रमाणित हो ।
विपरीत का अर्थ है कोई आपके सम्मुख भी है । चाहे वह स्त्री और पुरुष का सहचर्य हो । यह प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था है । सुख इसीलए अस्तित्व में है कि हमने दुःख को जाना, घृणा इसलिए महसूस करते हैं कि हमने प्रेम को जाना। स्त्री और पुरुष भी आपस मे अपोनेंड नही हैं, विरोधी नही है बल्कि सहचर हैं ।
कुछ शायरों ने प्रेयसी को चांद कहा, कुछ कवियों ने पत्नी को गले की घंटी..!
कभी किसी ने कल्पनाओं में नख-शिख वर्णन किया तो कभी उलाहना का प्रतीक बना दिया, पर पत्नियों ने कभी शिक़ायत नही की । पत्नियों ने क्या..स्वयं किसी स्त्री ने भी अपने इस पीड़ा की शिकायत कभी नही की । असल मे उसने इसे पीड़ा ही नही समझा ।
‘स्त्री’ इसीलिए स्त्री है..पर, कब तक..?
आज जो पति की इज़्ज़त परिवार पड़ोस और समाज मे है वह हे पुरुष ! आपके किसी पौरुषता की वजह से कम बल्कि किसी स्त्री के पति, पुत्र ,भाई आदि होने की वजह से ज्यादा है।
विवाहित का मतलब है नारी या पत्नी से जुड़ाव।
आपके घर मे दीये उसी स्त्री के प्रेम की बाती से जलते हैं, उसी की समर्पण की पराकाष्ठा की शांत स्निग्धता लिए अग्नि से वह दीया प्रज्वलित होता है और उसकी स्नेह भरे अदृश्य आक्सीजन से वह दीया सांस लेती है। बेशक तेल आपके पुरुषत्व का जलता हो।
पर अकेले रह गए पुरुष का वह ‘तेल’ पकवान और चमक तो बन सकता है, आंगन का दीया नही..!
बात ‘कामकाजी’ शब्द से आई है । थोड़ा और तकलीफ न हो तो ‘कामवाली’ भी कह देंगे, क्या फर्क पड़ेगा। वह तो सबकुछ कहलवाने को तैयार है, बस पुरुष की परीक्षा है कि वह ख़ुद अपने पौरुषता के दंभ को कितना पोषण देता है ।
पुरुष का एक समर्पण ढिंढोरा बन जाता है, पत्नी उसे समर्पण नही कह सकती लेकिन रोज पच्चीसों बार करती है ,हजारों बार करती है। वह बिना गलती किये भी रोज गलती मान लेती है ।
आज सुबह 5 बजे जब मैं मोटर पंप चालू करने घर से जब मैं बाहर निकला तब मुख्य दरवाजे की कुंडी खुली थी। रात शायद पत्नी अंदर से चिटकनी लगाना भूल गईं क्योंकि देर रात तक वही जाग रही थीं। मैं वापस आकर पत्नी को ज्ञान झाड़ गया – ‘पति जब पत्नी की ज्यादा मदद करने लगे तो पत्नी की अपनी जिम्मेदारी कम नही हो जाती। आपने दरवाजा बंद क्यों नही किया था ..? शुक्र है.. कोई चोर नही आया । ‘
पत्नी ने चुप सुन भी लिया और ‘गलती’ भी मान ली । क्षमा का भाव चेहरे पर उभर आया । गृहिणी हर बात मुँह से नही कहतीं । उन्होंने आगे कहा – मैंने सभी बाकी दरवाजे तो बंद किये थे पर रात मुख्य दरवाजा इसलिए चेक करना उचित नही समझा कि आप ही बाहर से आने वाले अंतिम व्यक्ति थे तो कुंडी आपने लगा दिया होगा।
बस यही शिकवे-शिकायतें ,नियम-पाबंद की बातें चल ही रही थीं कि किसी ने कॉल बेल बजा दी । इतनी सुबह..! अब पत्नी ने बिस्तर से उठकर कुंडी खोला , बाहर बेटा मॉर्निंग वाक-रन से वापस लौट कर दरवाजे पर खड़ा था । कोरोना पॉजिटिव के ब्रेक के बाद वह आज चुप अपने कमरे से निकल अलसुबह दौड़ने चला गया था ।
अब माफी तो मुझे मांगनी थी सो मैंने तुरत फुरत मांग ली ।
मेरे अपने लिए तो एक कप बनानी ही थी आज चाय मैंने दो कप बना ली…
यह होता है तथाकथित ‘पुरुष’ और वह थी एक असल ‘स्त्री’..!
वह बोलती और लिखती नही और मैं आज बोल और लिख रहा हूँ । यही है मेरे पुरुष होने का फर्क ।
बात ‘कामकाजी’ की थी, उसी पर लौटता हूं । नाम मे क्या रक्खा है । बाहर से आती है तो हम उसे ‘कामवाली बाई ‘ कह लेते हैं ।
‘रविवार’ मतलब किसी का कूल और रिलेक्स डे किसी का फन डे तो किसी का ‘सफाई डे’ ..!
पिछले एक रविवार की ही बात थी ।
‘कोविड होम आईशोलेशन’ के मेरे और बेटे के सातवें दिन होने के बाद भी घर मे पत्नी ने सफाई अभियान छेड़ दिया। सुबह से हॉल किचन और अपने कोविड से फ्री रहने के कारण अपने अधिकार क्षेत्र में झटकार, फुफकार और बर्तनों की खनकार के साथ कभी-कभी उनके चूड़ियों की भी खनकदार आवाज हम घर के दो कोविड मरीजों की अलसाई सुबह में विघ्न डाल रही थी। उठो उठो.. सन्डे का मतलब सोना नही, आप लोग अपने कमरे की सफाई करो। रात के बर्तन और कपड़े भी धोइये। मैं सुबह से घर की सफाई कर कामवाली बाई बनी हूं। आप लोग भी लग जाइये ।
“मैं तो.. संग जाऊंगी बनवास ..हे..! “
गुलज़ार साहब की इन पंक्तियों को मैं बाद में दोहराऊंगा ।
सच मे गृहिणी कामवाली बाई ही तो होती हैं । अगर नही भी मानो तो उससे कम भी नही । जब घर में अकेले ही सबकुछ करना हो तो उन्हें यही शब्द- ‘कामवाली बाई’ ही तो सार्थक करती है । बस फर्क इतना है कि वह इसका अलग से कोई पगार नही लेतीं ।
‘कामवाली बाई’ शब्द को कुछ लोगों ने फालतू में बदनाम समझ लिया । यह बहुत गलत सोच है । वही घर के काम पत्नी या घर की कोई महिला करे तो गृहिणी ..? किसी काम को आप स्तरहीन समझने लग जाएंगे तो आपकी धारणा उस पदनाम के प्रति स्तरहीन हो जाएगी । यह मानसिक सोच की गिरावट है ।
सोच बदलना होगा । कल को आप ‘पत्नी’ (बीवी) शब्द का नाम बदलेंगे । वैसे भी बहुत बदनाम किया है इस नाम (पत्नी शब्द) को कवियों शायरों और लेखकों ने । बेचारी आज भी तन कर वहीं खड़ी है ,हंसी और चुटकुले का पात्र ‘पत्नी ‘ बन कर । अडिग..!
‘तो क्या ‘नाम’ बदल देने से उसका ‘काम’ और महत्व बदल जायेगा..?’
कलकत्ता से कोलकाता हो गया । बैंगलोर से बेंगलुरू . मद्रास से चेन्नई और बॉम्बे से मुम्बई हो गया । मप्र में ‘कामवाली बाई ‘ से कुछ और हो गया । कल को आत्मसम्मान का सवाल बता कर ड्राइवर , माली , के लिए भी नए शब्द का इज़ाद करेंगे । बात है उनके कामों के प्रति सम्मान और उनसे आपके व्यवहार की ।
अगर ‘पत्नी’ को उचित सम्मान नही मिलेगा तो उसे भी अपना यह नाम एक दिन अपमान नही लगेगा..?
ठीक उसी तरह पत्नी उस रविवार को ‘कामवाली’ बनी हुई थीं। वीडियो जर्नलिस्ट बनने से पहले मैं पढ़ाई के दिनों में इलेक्ट्रिशियन था। एक ख़ास बात बताऊं – इलेक्ट्रिशियन याने,सिविल इंजीनियर, इलेक्ट्रिकल इंजीनियर, कारपेंटर, राजमिस्त्री, भिश्ती यानि कि हरफ़नमौला। उसी से मुझे मल्टीटास्किंग और टाइम मैनेजमेंट का हुनर मिला है । मैं जरूरत पड़ने तीन मिनट में सेविंग ब्रश और स्नान कर टॉयलेट से निकल सकता हूँ । 2 मिनट वाली मैगी बनने से भी पहले खाना खा सकता हूँ। घर और किचन के भी छोटे-मोटे काम वक्त-बेवक्त कर सकता हूँ ।
कोविड के कारण मैं अपने सारे काम खुद कर रहा था । गीज़र से गरम पानी निकालकर मैंने भी रात के बर्तन मांजे, कपड़े धोए और अपने और बेटे के आईशोलेशन वाले कमरे का झाड़ू पोछा अच्छी तरह किया ।
पत्नी को वर्कलोड बंट जाने से बड़ी सुविधा हुई । जरूरी नही कि रण में ही वीरता से आप वीर कहलाएं । छोटे मोटे घरेलू काम कर पत्नी को प्रभावित करते रहिये । कोरोनकाल ने बहुत लोगों ने छोटे छोटे घरेलू काम करके गृहणियों का हाथ मजबूत किया । उस हिसाब से उन कामों को भी पति की वीरता माना जाना चाहिए ऐसा बहुत लोग मज़ाकिया तर्क देते थे ।
‘गुलज़ार’ साहब ने ऊपर लिखे मेरे उसी गीत में आगे सीता को राम के साथ बन जाने की जिद्द करते हुए लिखा है –
“तुम तो जोद्धा वीर हो स्वामी , तुम हो तो क्या डरना
तुम तो जोद्धा वीर हो स्वामी , तुम हो तो क्या डरना
बाण तुम्हारे कांधे सोहे
संग हो तो क्या डरना..
मैं तो संग जाऊंगी बनवास
मैं तो संग जाऊंगी बनवास हे..”
गीत : फ़िल्म ‘एक पल’ ‘ कल्पना लाज़मी 1986, भूपेन हज़ारिका-लता मंगेशकर)
उसी दिन डॉटर्स डे भी था ,’बिटिया दिवस’ !
पत्नी अपने पापा की तीन परियों में ‘मझली’ हैं । वह उस दिन अपनी दोनों बहनों से वीडियो कॉल पर खूब बतियाईं। मुझे शाम का बर्तन मांजते भी उनको लाइव दिखा दिया ।
मुझे एहसास है उससे मेरी बेइज्जती नही मेरी ‘पत्नी’ का सम्मान बढ़ा होगा । ऐसे शग़ल और ‘टॉनिक’ उनको बाहर से ऊर्जा देती है ।
कोई कामकाजी है कोई गृहिणी । पर वह ‘स्त्री’ तो पूरी है । उतनी ही भावनाएं हैं उतनी ही संवेदनाएं हैं ।
गृहिणी की महानता का गान अतिरंजना नही । कभी स्वार्थ या विशेष उद्देश्य-वश पुरुष कहते नही अघाते की ईश्वर ने औरत को फुर्सत से बनाया है हर काम के लिए दक्ष ।
लेकिन गृहणी का एक ऐसा समय जरा बता दो जब वह पल उसके फुर्सत का हो । केवल अपना ।
बिटिया पानी ला दो…. बिटिया भाई को खाना ख़िला दो….. बिटिया पापा की बटन टांक दो । बहू चार लोगों का खाना बना दो ….बहु मर्यादा का खयाल रखो…मां बन जाओ….अभी बच्चा मत लाओ … अब बच्चा जन लो …. सास बन जाओ ….दादी बन जाओ।
बस कामकाजी बन कर आराम मत फरमाओ…
आज बस इतना ही..!
“स्वयंसिद्धा” को समर्पित यह मेरा पहला विमर्श
(लेखक एबीपी न्यूज चैनल में कार्यरत हैं)
© मीडियाटिक
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