कच्ची लोई

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कच्ची लोई

कच्ची लोई

डॉ. भारती शुक्ल 

औरतें भटक जाती हैं अक्सर

अपनी बातों से

 कहो यहां की

 सुनाने लगती है न जाने कहां-कहां की

और बस.. तुम बौखला जाते हो

की कमबख्त मुद्दे की बात नहीं करती,

ये स्त्रियों के अंदर का केमिकल लोचा है

हरे नीले रंग का।

जो फैला पड़ा है उसके निर्भ्र ह्रदय पर

बे-ढब औरत की ये अदृश्य पतंगें हैं

जिसकी कमानी को वो देती है

एकदम सही आकार!!

वो उड़ती है हर रोज,

वो भागती है दिन में कई कई बार..।

क्या कभी तुमने नदी को ढब में देखा है?

या कभी किसी जंगल को

किसी एक राग में गाते देखा है?

या कभी किसी आकाश के टुकड़े को

किसी एक आकार में बहते देखा है?

औरतें इन सबसे गुजरती हुई

आती है अपने मुद्दे पर

बताओ तुम? अब कहां से लाए वो ढब?

जो तुम चाहते हो,

तुम्हारे लिए तो औरत

कच्ची लोई

होती है

चाहे जैसा बना दो,निर्माता बने रहने का

ये तुम्हारे अंदर का केमिकल लोचा है!!

पर तुम जानते ही नहीं

 कच्ची लोई ही तो अंकुआती  हैं..

कभी पथरीली जमीन पर

पेड़ को उगते देखा है?

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