उषादेवी मित्रा : प्रेमचंद भी मुरीद थे लेकिन साहित्य में अनचीन्ही रह गईं

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उषादेवी मित्रा : प्रेमचंद भी मुरीद थे लेकिन साहित्य में अनचीन्ही रह गईं

विशिष्ट महिला 

• सारिका ठाकुर

हिन्दी साहित्य की महत्वपूर्ण हस्ताक्षर उषा देवी मित्रा का जन्म सन 1897 में जबलपुर के एक सुशिक्षित बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री हरिश्चंद्र दत्त जबलपुर के सुप्रसिद्ध वकील थे। वे हिंदी के अलावा अंग्रेजी और उर्दू के भी प्रकाण्ड विद्वान थे। इसके अतिरिक्त वे एक कुशल शिकारी तथा शिकार साहित्य के प्रणेता होने के साथ संगीत प्रेमी भी थे। उनकी माँ और उषा जी की दादी बिनोदिनी देवी बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका थीं जबकि उषा जी की माँ श्रीमती सरोजनी दत्त धार्मिक विचारों वाली स्नेहिल महिला थीं। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुसार उषा जी के परिवार में भी स्त्री शिक्षा का चलन नहीं था और बाल विवाह प्रचलित था। लेकिन एक रूढ़िवादी परिवार होते हुए भी उषाजी के पिता ने उनकी शिक्षा – दीक्षा का समुचित प्रबंध किया।

कहा जा सकता है कि उषाजी के व्यक्तित्व निर्माण में माता-पिता का समान योगदान रहा। इसलिए उनकी रचनाओं में रूढ़ियों और कुप्रथाओं के प्रति सहज प्रतिरोध के स्वर व्यक्त होते हैं। उस समय की स्थापित लेखिकाओं में सुभद्रा कुमारी चौहान, होमवती देवी, कमला चौधरी, सत्यवती मलिक, चन्द्रकिरण सोनरेक्सा का आदि का नाम लिया जाता है, इसी कड़ी में उषाजी का नाम भी शामिल है। साहित्य जगत में उषा जी का पदार्पण सहज रूप से हुआ, क्योंकि उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि में साहित्य रचा-बसा था। बांग्ला के सुप्रसिद्ध लेखक सत्येन्द्र नाथ दत्त उनके मामा और कविगुरु रवींद्रनाथ टैगोर उनके दादू थे। उषा जी एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता भी थीं, स्त्रियों की समस्याओं को देखते हुए उन्होंने नारी मंडल समिति की स्थापना की थी।  

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उषाजी का विवाह 12-14 वर्ष की आयु में  इलेक्ट्रिककल इंजीनियर  क्षितिश्चंद्र मित्रा के साथ हुआ। विवाह के बाद उच्च शिक्षा के लिए श्री मित्रा को विदेश जाना पड़ा। पति के विदेश प्रवास के दौरान ही उषा जी की पहली संतान हिना का जन्म हुआ। पांच-छः वर्ष बाद जब उनके पति स्वदेश लौटकर आए तो उनकी नियुक्ति लखनऊ में हुई। उषा जी पति के साथ लखनऊ आ गईं। कुछ समय पश्चात् उन्होंने पुत्र के रूप में दूसरी संतान को जन्म दिया जो 9-10 माह के बाद ही काल का ग्रास बन गया। 1918-1919 के बीच अनेक परिजनों का शोक उन्हें झेलना पड़ा। उनकी बड़ी बहन पंकुजनी का कलकत्ते में देहांत हो गया, इसके डेढ़ माह बाद उनके उनके भाई शिशिर कुमार दत्त भी गुजर गए। 1919 में साधारण फुंसी में सेप्टिक हो जाने के कारण उनके पति भी चल बसे। उस समय वे गर्भवती थीं। इस हादसे के बाद उनकी दूसरी पुत्री ‘बुलबुल’ का जन्म हुआ। पति से 5-6 वर्षों की दूरी और एक के बाद एक ‘अपनों’ की अकाल मृत्यु ने उनकी चेतना को झकझोरकर रख दिया।

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वैधव्य ने जीवन को रिक्त कर दिया जिसे भरने में नवजात पुत्री के साथ ही पठन-पाठन एवं लेखन भी मददगार साबित हुआ। उस समय वे कलकत्ते में निवास कर रही थीं। पति के असमय निधन के बाद उन्होंने कुछ समय शान्ति निकेतन में बिताया, जहां उन्होंने संस्कृत में विशेषज्ञता हासिल की। इसके साथ ही वे छुप छुपकर कहानियां और उपन्यास लिखने लगीं थीं। एक दिन कविगुरु और सत्येन्द्र नाथ जी की नज़र उनकी कहानी ‘दीक्षिता’ और उपन्यास ‘सम्मोहिता’ पर पड़ी। दोनों विभूतियाँ इन रचनाओं से बहुत प्रभावित हुईं। बाद में दोनों कृतियाँ प्रवासी, भारतवर्ष, वसुमती, पञ्च पुष्प आदि मासिक पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं। चूंकि उषा जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि में साहित्य रचा-बसा था और उनके मन में अनुभूतियों का समुद्र लहरा रहा था। इन संयोगों ने मिलकर उनके साहित्यिक जीवन की आधारभूमि तैयार की जो उनके लिए आर्थिक अवलंब भी बनी।

शुरुआत में वे बांग्ला में लिखती थीं। 1932 में उन्होंने हिन्दी साहित्य में कदम रखा और हंस में उनकी पहली हिन्दी कहानी ‘मातृत्व’ प्रकाशित हुई। इस रचना ने कथा सम्राट प्रेमचंद का ध्यान आकृष्ट किया। उन्होंने मुक्त कंठ से उषा जी की प्रशंसा करते हुए उन्हें पत्र में लिखा कि –“तुम्हारी कहानी पढ़कर चित्त प्रसन्न हो गया। मैं नहीं समझता था कि तुम इतना सुन्दर गद्य लिख सकोगी …. ऐसी दस कहानियां भी तुम लिख दो तो हिंदी गद्य लेखकों में तुम्हारा नाम सर्वोच्च हो जाएगा।”  इस प्रोत्साहन को पाकर उषा जी भी मानो निहाल हो उठी थीं। वे निरंतर लिख रही थीं ,लेकिन आत्म प्रचार से हमेशा दूर ही रहीं। उषा जी किसी वाद की प्रत्यक्ष समर्थक कभी नहीं रहीं। उनकी रचनाओं में अकेलापन, जीवन के मधुर एवं कटु अनुभव, सुधार की प्रत्याशा आदि की ध्वनि मुखरित होती है। कथा लेखन की उनकी सशक्त शैली के कारण हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा संध्या पुरबी के लिए उन्हें सेकसरिया पुरस्कार प्रदान किया गया था।

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लेकिन दुखों ने उषा जी का पीछा करना जारी रखा। वे अनेक शारीरिक व्याधियों से ग्रस्त रहने लगीं, जिसे अपना भाग्य मानते हुए उन्होंने स्वीकार कर लिया था। 19 सितम्बर 1966 को इस विदुषी ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उनकी कहानियों के विभिन्न पात्रों की शारीरिक व्याधियों में मानो स्वयं उनकी पीड़ा व्यक्त होती है। अपने जीवन के अंतिम दो वर्षों में उन्होंने दो अंतिम इच्छाएं व्यक्त की थीं – पहली यह कि उनकी मृत्यु के बाद उनके साथ उनके समस्त साहित्य को भी जला दिया जाए और दूसरी- उनकी अर्थी शास्त्रीय संगीत की स्वर लहरियों के साथ चलकर श्मशान तक पहुंचे। इस सन्दर्भ में श्री नर्मदा प्रसाद खरे एवं उषा जी के भाई श्री जे.के. दत्त का कहना है कि ‘उषा जी के मन में यह कुंठा थी कि उन्हें अपनी साहित्यिक साधना के लिए यथोचित श्रेय नहीं मिला। वे साहित्यिक खेमेबंदी से मुक्त थीं, क्या इसलिए उनके साथ न्याय नहीं होना चाहिए था’? उनकी पुत्री इस विचार का खंडन करती हैं, लेकिन इस मंशा के पीछे कोई स्पष्ट कारण वे नहीं बता पातीं।

प्रकाशित कृतियाँ:

• उपन्यास: वचन का मोल, पिया, जीवन की मुस्कान, पथचारी, सोहनी, नष्ट नीड़, सम्मोहिता
• कहानी संग्रह: रात की रानी, नीम चमेली, महावर, आंधी के छंद, संध्या पुरबी, मेघ मल्हार, रागिनी

सन्दर्भ स्रोत : 1.शोधगंगा से प्राप्त थीसिस –(उषा देवी मित्रा के कथा साहित्य में नारी जीवन के बदलते स्वरूप)
शोधकर्ता : प्रीति आर. संत थॉमस कॉलेज, पाला (महात्मा गाँधी वि.वि., कोट्टयम, केरल)
2.स्त्री शक्ति डॉट कॉम

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